Friday, July 1, 2016

तेरी मनमानी

तुम उम्मीदों के पत्थर फेंकते हो,
और मेरी चीखों को शोर बुलाते हो?
रिश्तों की नोक चुभाते हो,
पर घावों से नज़र बचाते हो?
उड़ने तो दिया पतंग की तरह,
पर हाथ अपने ही रख ली डोर,
तेरी  बेफिक्री में कट वो गयी तो,
मेरी मनमानी का मचाया शोर,
जान तो कब से तुम्हारी ही थी,
क्यों माँगा तुमने ईमान मगर,
शौक था जब कठपुतलियों का,
क्यों चुन लिया इंसान मगर,
क्यों जुबां से निकली सदा सुनी
पर रूह की चीख न सुन सके,
क्यों चेहरे का गुस्सा चुना ,
नज़रों का दर्द न चुन सके,
क्यों आज की बगावत याद रखी,
क्यों अब तक की वफ़ा को भूल गए,
अपना भी कहते हो,
और गैरों की तरह रुलाते हो,
तुम उम्मीदों के पत्थर फेंकते हो,
और मेरी चीखों को शोर बुलाते हो?

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