Tuesday, June 29, 2010

राजनीतिक सुहागरात



शाम की सज़ावट से जब ज़ुल्फ़ें हुई आज़ाद 
शुरु हुआ वो खेल जिस्मे देश हुआ बर्बाद,
हर उतरते गहने के संग, सांसें रही थी फूल,
और एक दूजे मे लिपटे पडे थे, दो बदन मशगूल,
लोकतंत्र की चादर पे बनी सिल्वटों पर लेटे,
इस संगम तल पिसे हुए मासूम फूलों को समेटे,
खून के धब्बों पर, लथपथ पसीने में,
होठ तो खामोश थे, पर चीख थी सीने में,
चरमराती पलंग न्याय की, क्या कहती उसपे क्या बीती थी,
उस काली रात जब, सुहागरात थी राज-नीती की ।
कांपती कराहती सी, कुछ बेबस सी थी नीती आज,
मर्दानगी के नशे मे उसको जकडे हुए था राज,
एक एक कर टूटती चूडियां शायद जनता की आवाज़ थीं
वो चुम्बन सरकार नाम के नए रिश्ते का आगाज़ थीं,
वो खरोचें भ्रष्ट नाखूनों की, तडपा रही थी नीती को,
आंसू बयान कर रहे थे, उसकी आपबीती को,
सत्ता की हवस में, या ताकत की तिशनगी में,
शर्म से बंद थी आंखें, या दीवानगी में,
वो सूखते गले गरीब थे वो तनती नसें थी व्यवस्था 
और चढते पारे के बीच राज नीती बाबस्ता
लुट चुका था जो लुटना था जब तक खत्म हुआ वो मंज़र
राज तो संतान छोड गया, पर नीती रह गयी बंजर।

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